क्षणिकाएँ (आईने)...




तुम सा मैं...

झपकती पलकों से,
रोज़ उतरता जाता है,
तुम्हारा अक्स मेरे भीतर.
दोष नहीं थोड़ा भी,
मेरे घर के आईनों का.




आँख आईने की...

बहा बाजुओं से मेरी,
या तेरी आस्तीन से निकला.
खूँ में फर्क नहीं करता,
माँ की तरह आईना भी.



अक्स के पीछे...

तुम चुनती हो,
दर्द के फूल.
मैं घोंटता हूँ,
उनसे रोज़ इत्र.
दिखाता है मेरी बेढब हँसी.
मुआ आईना कोई,
खुशबू नहीं दिखलाता.




अब्बा...

उनकी पेशानी के बल,
आयते हैं कुरान की.
आँखों के घेरे हैं,
सुन्दरकाण्ड की चौपाइयाँ.
समय के आईने में,
कभी अब्बू को देखो.





माँ...

जितने दिन होता हूँ घर पर,
नहीं देखती है आईना.
मेरे नहीं होने पर,
हर आईने में,
ढूंढती है माँ मुझको.




और आईने..

मेरी मुस्कराहट का दर्द,
तो नहीं पता लगता तुम्हे.
जो झूठ नहीं बोलते,
वो आईने और होते होंगे.




कुछ वक़्त हुआ...

धुंधलाने लगा है,
मुझमे तुम्हारा अक्स.
जब से तुमने कहा,
बदल दें पुराने आईने.

24 टिप्पणियाँ:

अरुण चन्द्र रॉय said...

अब किन किन क्षणिकाओं की प्रशंशा करू.. सभी बहुत बहिया हैं और दिल की गहराई तक पहुँच रही हैं.. अंतिम क्षणिका उत्क्रृष्ट है..

परमजीत सिहँ बाली said...

सुन्दर क्षणिकाएं हैं बधाई।

Anonymous said...

इतनी बेहतरीन क्षणिकाएं...
आपकी कलम का जादू ही है यह....

vandana gupta said...

यहाँ तो आपने हर क्षणिका को आईना दिखा दिया………………हर क्षणिका सोचने को मजबूर करती है………………किसी एक की तारीफ़ दूसरे से नाइंसाफ़ी होगी………………दिल मे उतर गयीं।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

सारी क्षणिकाएं लाजवाब ...अब्बू और माँ बहुत अच्छी लगीं ...

संजय @ मो सम कौन... said...

कुर्बान, कुर्बान, कुर्बान।

ये अंदाज भी खूब है।

वैसे राज्जा, एक देसी कहावत है "गई ये गैय्या भी गार में"
गुड लक।

प्रवीण पाण्डेय said...

सारी की सारी उत्तम। क्षणिकाओं में भाव समेटना कितना कठिन है।

दिपाली "आब" said...

beautifull...wo aaine aur hote honge.. Kya baat kahi..sabhi kshanikaayein acchi lagi

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

अविनाश जी..किस नदी में स्नान करके… मुआफ़ करें जनाब किस आबे दरिया से वुजू करके आए हैं कि लहजा बदला बदला सा है... कहीं आपका ब्लॉग हैक तो नहीं हो गया!!!
सारी की सारी क्षणिकाएँ क़तल हैं क़तल... माँ तो बहुत ही प्यारी लगी... और जब आपने आईने ही आईने लगा रखे हैं तो कौन सा अक्स सुंदर कहूँ , सब तो अपना ही अक्स है... बकौल गुलज़ारः
आओ सारे पहन लें आईने
सारे देखेंगे अपना ही चेहरा
सबको सारे हसीं लगेंगे यहाँ.

प्रवीण पाण्डेय said...

सारी की सारी उत्तम। क्षणिकाओं में भाव समेटना कितना कठिन है।

शरद कोकास said...

बहुत प्यारी कवितायें हैं ।

वीना श्रीवास्तव said...

सारी क्षणिकाएं बहुत उम्दा हैं...बधाई

सु-मन (Suman Kapoor) said...

अति सुन्दर.......हर क्षणिका आपके विचारों की आईना प्रतीत होती है........

Dr Xitija Singh said...

bahut khoobsurat rachna .... aapne har aaine main har rishte ka bakhoobi aks dikhaya hai ...

अरुण अवध said...

कमाल की क्षणिकाएं हैं ,बेहद सुन्दर !

राजभाषा हिंदी said...

आपके क़लम का जादू .. नमन! बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
मध्यकालीन भारत-धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-२), राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें

Udan Tashtari said...

बहुत ही बेहतरीन क्षणिकायें...

Alpana Verma said...

आईने कहते हैं कितनी बातें!!
आखिरी क्षणिका खास लगी.

दिगम्बर नासवा said...

जितने दिन होता हूँ घर पर,
नहीं देखती है आईना.
मेरे नहीं होने पर,
हर आईने में,
ढूंढती है माँ मुझको....

हर क्षणिका नया आईना दिखा रही है ... हक़ीकत का आईना .. जज़्बात का आईना ... गहरे एहसास का आईना ...
बहुत लाजवाब लिखते हैं आप ...

कविता रावत said...

बहुत उम्दा क्षणिकाएं
आपको और आपके परिवार को नवरात्र की हार्दिक शुभकामनाएँ

अनामिका की सदायें ...... said...

अविनाश पता हें मेरा दिल क्या करता है..तुम्हारी कलम के साथ तुम्हारे मन के भाव भी चोरी कर लूँ किसी दिन..और सरे कागज़ भर डालू.

उफ़ भाई कहाँ से लाते हो ऐसे भाव...

मन की आँखे तो भीगती हैं हर बार
आज कुछ ऐसा हुआ की
मुआ दुपट्टा भी
भीग गया.

देवेन्द्र पाण्डेय said...

कोमल एहसासों को बखूबी उकेरा है आपने..बधाई।

देवेन्द्र पाण्डेय said...

खूँ में फर्क नहीं करता,
माँ की तरह आईना भी.
..
मुआ आईना कोई,
खुशबू नहीं दिखलाता.
..
समय के आईने में,
कभी अब्बू को देखो.
.. फिर आया, खींचा हुआ पढ़ने..मैं नही आया..ये क्षणिकाएँ ले आईं..दोबारा.
..बधाई।

Avinash Chandra said...

इस स्नेह का बहुत बहुत शुक्रिया