तुम्हारी नज़्म...



भुनभुनाये हुए,
देते हुए गालियाँ.
घसीटते हुए,
जीवन का अर्थशास्त्र ,
ब्रेक इवेन प्वाईंट से ऊपर.
लोग!

गुनगुनाये हुए,
जिससे फूटते हैं बुलबुले,
निकलती है भाप.
बनता है अजनबी अक्स,
पानी से चेहरा धोते.
लोग!

झनझनाए हुए,
थप्पड़ खाए गाल.
दबाये खूब बर्फ़ से,
कि माँ ना जान सके,
परोसते वक़्त रोटियाँ.
लोग!

चरमराये हुए,
कोसते सरकार को.
अधेड़ से तनिक ऊपर,
वृद्धावस्था की तरफ़ दौड़ते,
"पिता " नाम के,
लोग!

सुगबुगाए हुए,
दो चोटियाँ करती लडकियाँ.
जो नहीं चाहतीं,
बिकें कांसे-फूल के कटोरे, 
और करे हाथ पीले,
लोग!

भरभराए हुए,
छत को देखतीं.
सावन सी पनीली आँखें.
कौन 'टपकेगा' पहले,
मैं या तुम तर्क करते,
लोग!

कसमसाये हुए,
चिमटों से दगे पैर.
कि बाबा की आँख लगे,
तो लहरायें कैंची साइकिल,
रहर वाली पगडंडी पर,
लोग!

रात के फुलाये हुए,
चने देख सोचती माँ.
सप्तमी-एकादशी-पूर्णिमा,
रख लूँगी तो खायेंगे,
तीन बार और बच्चे.
लोग!

भले ही ना उतरती हों,
किसी पाणिनि के खाँचे में.
भले ही न छनती हों,
सुर में, लय में, ताल में.

पर इन 'लोगों' में से किसी को,
किसी एक को भी,
हँसा दे, रुला दे.
जगा दे, सुला दे.
कन्धों से पकडे,
हौले से उठा दे.

तो तुम्हारी ये 'चीज',
'नज़्म' हो ना हो,
कामयाब नज़्म है.

क्षत्रियता...



समस्त पराक्रम,
निचोड़ के रख तो दूँ.
खोल दूँ प्रत्यंचा, कवच
मोड़ के रख तो दूँ.
किन्तु विकट तम आए तो,
मुझे हिंसक कहने वाले,
शांति के पुरोधाओं!
असि उठा लोगे?

कालरात्रि के जुगनू,
जो सहेजे हैं युगों से.
पेटी में उनके पँख,
तोड़ के रख तो दूँ.
किन्तु जब मिहिर ना आए,
राहु ही परम विजयी हो.
तो कुठार को जान,
मसि, उठा लोगे?

उतार के खडग,
उठा लूँ खुरपी.
नरमुंडों की जगह बीज,
गोड़ के रख तो दूँ.
किन्तु जब अन्याय हो,
त्राहिमाम न करोगे.
तोड़ उसकी अतिक्रूर,
हँसी, ठठा लोगे?

ऋचाएँ नहीं पढ़ी हैं,
धर्मभीरू भी नहीं हूँ.
गायत्री मंत्र लेकिन हाथ,
जोड़ के पढ़ तो दूँ.
किन्तु आवश्यक हो जाए तो,
घृत लोबान झोंकने वालों!
यज्ञ में स्वयं का ही,
शीश कटा लोगे?

आचमन कर नहीं खाया,
मूज से बस धनुष बाँधा.
हो जाऊं तुमसा, सब,
छोड़ के रख तो दूँ.
किन्तु जब विषैले नाग,
ना सुने प्रवचन कोई.
बन पाओगे विकराल?
अपने युगों के पुण्य पर,
एक क्षण ही कहो,
देव, क्षत्रियता लोगे?

क्षणिकाएँ.....


छत का प्लास्टर...

एक बटा आठ,
सीमेंट-बालू से नहीं.
तुम्हारे बाबूजी के,
पसीने-अरमानों से,
अब तक जुड़ा था.
वो जो टूट जाएँ,
मैं भी फूट झडूं.



यादें...

गुल्लक में सहेज रखी,
तुम्हारी तमाम यादें.
किसी भी आलपिन से,
निकलती ही नहीं.
एक रोज ये साँस छूटे,
तो ये गुल्लक फूटे.



काले धब्बे...

आधी रात के जश्न में,
रोत़ी कविताओं का दर्द,
ठठाते शब्दों में सुनना.
चिराग तले अन्धेरा,
यूँ ही तो नहीं कहते.




तरुवर...

पल्लव!
रुकना तनिक,
पल्लवित होना.
निखर जाओ पूरे,
और मैं पुलक जाऊं,
तो करना प्रतिरोध.
आशीष दे, जाने दूँगा,
लोग पिता कहते हैं मुझे.




बोधिसत्व...

मेरी साँसें महान नहीं हैं,
कोई सत्व मिले मुझे,
ऐसी आकांक्षा भी नहीं.
तुम्हारी आँखों को दूँ रोशनाई,
तो त्रिज्ञ नहीं बनना है मुझे


त्रिज्ञ= बुद्ध



नहीं सजे वीणा की तान जो,
बस चढ़ पाए धनुष-बाण जो.
जिन पर नव्या नहीं अघाई,
ऐसे थे चीत्कार के गीत.

जिनमे कल-कल शब्द नहीं थे,
थे सब सुर पर लब्ध नहीं थे.
जिन पर रति नहीं लहराई,
ऐसे थे हाहाकार के गीत.

जो तरुणी के अधर नहीं थे,
जो किंचित भी मधुर नहीं थे.
देख जिन्हें बदली ना छाई,
ऐसे थे दुत्कार के गीत.

भँवरे जिन पर ना बौराए,
किसी शाख भी पुष्प ना आए.
जिन पर मंथर गंगा रोई,
ऐसे थे करुण पुकार के गीत.

देवदत्त जिस दिवस लजाया,
गांडीव में था बोझ समाया.
कालध्वनि थी ऊषा की बोली,
ऐसे थे मेरी ललकार के गीत.

नारायण कीचड़ में उतरा,
पार्थ ने नैतिकता को कुतरा.
था कौन मनीषी सबने देखा,
जब बजे पूर्णटंकार के गीत..

लोबान....



समझता हूँ मजबूरी,
तुम्हारी चुप सी चुप की.
बूढ़े कदम्ब के नीचे,
पसरे घुटनों की,
बेबस बेबसी भी.

नहीं मानो शायद.
पर बनास के,
पानी से छानता हूँ,
तुम्हारे आँसुओं को,
नित्य-रोज-प्रतिदिन.

तुम्हारी एकटक टकटकी,
जो देखती है राह.
की बाँस के चौथे झुरमुट.
से निकल आऊं मैं,
हुलसती है यहाँ तक.

तुम्हारी अकेली कविताएँ,
जिनमे शब्द नहीं हैं,
देती हैं उलाहना.
" गुन सको तो,
तनिक साजो न पार्थ"

ये प्रस्तावना नहीं है,
क्षमाप्रार्थी भी नहीं मैं.
उचित ही हैं सब लांछन,
काल-कलवित श्राप भी,
मुझे स्वीकार्य हैं नव्या.

किन्तु सुगंध नसिका गुनिता,
कुछ कहूँ आज?

सदैव ही था मैं,
दो मुठ्ठी लोबान.
सच में प्रिय मैं,
मलयपुत्र नहीं था....

सृजन...



कुछ रोती कविताएँ,
चीत्कार करते कुछ,
अधलिखे घुनाए शब्द.

जिन पर मंडराती,
थी हरी मक्खियाँ,
पतित था प्रारब्ध.

कल निचोड़ दिए.
डाले कुछ फूल,
अमलतास-पलाश के.

आज सूखे हैं,
लहराए हैं तो,
रोग हुए हैं स्तब्ध.

बैंगनी छींटों से,
हुआ पूर्ण आसमान,
दीप्त, कोमल-लब्ध.

ओसारे में बैठी,
पुराने कपड़ों से,
रंगीन बिछावन सिलती.

माँ को देखना,
भी तो संगोष्ठी है,
महाव्याकरण है.

है ना पाणिनि?

सुनो स्वेद....



ओ स्वेद की बूंदों बह जाओ,
अब धरा ही देगी नेह तुम्हे.
इतने दिन रक्त से क्या पाया,
क्या दे पाई यह देह तुम्हे.

क्या जिजीविषा, क्या माँसल तन,
और क्या धीरज के विरले क्षण.
ये सब कवि की भ्रामकता है,
अब भी है क्या संदेह तुम्हे.

उद्यम-उद्योग और नाना श्रम,
पाणि-हल-हँसिया, खांटी क्रम.
अब रूप हैं भोग की धातु के,
ये क्या देंगे श्रद्धेय तुम्हे.

जो नेत्र सलिल से रीता हो,
मन खाँस-खाँस के जीता हो.
तो कौन ललाट पे छाओगे,
कहेगा ही कौन अजेय तुम्हे.

जो कंधे सूर्य-उजाले थे,
तुम बहते जहाँ मतवाले थे.
स्वयं उनका ही अवलम्ब नहीं,
देंगे क्या और प्रमेय तुम्हे.

बस एक धरा ना बदली है,
माँ है, वैसी ही पगली है.
बैजयंती पुष्प खिलाएगी,
दे कर जीवन का ध्येय तुम्हे.

अपूर्ण अनुच्छेद...


शलभ समान अक्षर,
जो थे सने-नहाए,
धूसरित धूल में.
पुलकित हुए देख,
तुम्हे ज्योतिशिखा.

बहती सन-सन,
वासंती रुंध गयी.
देख उत्कट अनुराग,
मंद हुई, रुक गयी.

सभी वर्ण जले,
चटचटाए नहीं,
बने शांत स्फुल्लिंग.

जैसे महेश ने,
दिया हो मोक्ष,
रोगी रागों को.

संतोष में पगे,
अग्नि कणों ने छू,
धरा को दैविक,
शब्द बीज दे दिए.

जो उपजे, लहलहाए,
झूमे, खिलखिलाए.

कार्तिक में कुछ,
वाक्य भी तो तुम्हे,
दिए थे ना मैंने.

फिर कहीं से आई,
भौतिकता की वल्लरी.
लपेटती रही-नापती रही,
समास-संधि-क्रिया.

और एक दिन,
तुमने-वल्लरी ने,
ले ली विदा.

उस दिन से प्रिय,
वहीँ है रुका,
एक अपूर्ण अनुच्छेद.

व्याकरण भूल,
जो कभी लौटो,
तो पूरा कर लूँ.

ऐसे ही (क्षणिकाएँ..)

ऊपर की दुनिया...

कल थी बड़ी,
रौशनी उस जहां.
रात बारिश के बहाने,
ख़ुशी के आँसू,
"वो" भी रोया.
सुना कल किसी ने,
"उसे" अब्बा कहा था.



बराबर प्रेम...

वारीज पँखों पर बैठा,
तुम्हारा अप्रतिम नेह,
सूखने लगा है.
कब तक रहोगे,
धवल, हे वल्लभ!
कभी पंक उतर,
देखो तो तुम भी.



उम्र ख्वाब की...

मेरी पलकों को,
बेधता तुम्हारा ख्वाब.
निकल जाना चाहता है,
सच होने को.
पर जेठ की जमीन छूना,
संभव कब हुआ है?



दिए को चाहिए...

तमस के पन्नों पर,
आक्रान्त मन से,
झूठ के गुलाब पर,
मनुज लिखना छोडो.
ले आओ मिहिर,
की त्वरित छटास.
सरसों के फूल से,
तमनाशक को निचोड़ो.



तो प्रेम हो.....

किसने कहा प्रेमगीत,
सत्य नहीं होते?
स्टील का कटोरा,
मटका भर पानी,
नून-तेल-सत्तू,
ज्योतिर्मय प्याज.
ना जुट पाए तो,
अलग बात है.


जो दिन फिरते...

काले बादलों का,
बीहड़ क्रंदन गीत.
दिलाता है याद,
तुम्हारा दारुण बिछोह.
कहते हैं इस बार,
हथिया जबरदस्त चढ़ा है.


हथिया= एक नक्षत्र है, जिसमे अमूमन बारिश अच्छी होती है.

मुदित जीवन......



जीर्ण, मृतप्राय, स्पन्दनहीन,
तनिका साँसों की.
जी उठती हैं,
जब किये धारण अमलान हास,
सम्मुख आ जाते हो,
तुम दूर वितानों से.

और मृत्यु का,
अनन्य-आकंठ प्रेमी.
कर देता है भंग,
हर वचन, नीति-द्वन्द.

तुम्हारा चिर प्रणय अभ्र,
उड़ेल देता है समस्त तोय.
और धिनान्त डूबते विहग,
को जैसे मिल जाता है,
अद्वेत, धिपिन दिगंत .

तारागण भी पुलकित हो,
करते हैं पुनीत आलाप.

रुक्म सम दीप्त किन्तु,
अघर्ण-मलय सी शीतल,
तुम्हारी अभीक काया.
आभास देती है जैसे,
लौटा हो विजयी,
अजातशत्रु दबीत,
अखिल-अग्रिय.

और स्वयं दर्पकहंता ,
गिरिजा संग आए हों,
देने चिरायु आशीष.
एवं गुनिता निकांदर्य,
मुस्काती हों कहीं,
बैठे श्वेत अरविंद.

हे मिहिर-मधुक-मितुल!
इस निकुंज बैठे,
इन मेहुल बूंदों धुल,
मुझे भी होता है प्राप्त,
मुदित मृगांक जीवन.



-------------------------
अभीक= भयहीन
अभ्र= बादल
अद्वेत= एक/अकेला/अद्वितीय
धिपिन= उत्साहजनक
रुक्म= स्वर्ण
धिनान्त= साँझ
अघर्ण= चन्द्रमा
दबीत= योद्धा
दर्पक= कामदेव
गुनिता= दक्ष स्त्री
तनिका= रस्सी/डोर
तोय= पानी
निकांदर्य= सरस्वती
मिहिर= सूर्य
मितुल= मित्र
मेहुल= वर्षा

आसमान में दाग...



बैठे रहो,
सोचो भरसक.
मनन करो,
विचारों मुझे.

निंदा करो,
उलाहना दो.
आक्षेप निकाल,
फेंको मुझ पर.

हो क्रोधित,
भौहें चढ़ाओ.
उठाओ आस्तीनें,
फडकाओ  भुजाएँ.

व्यूह रचो,
करो उपाय.
अबकी आए,
जाने न पाए.

कोसो मुझे,
शापित करो.
यज्ञ-हवन,
बाधित करो.


विष ग्रंथि,
भेजो भेंट.
शर उठा,
करो आखेट.

निशा दिवस,
ध्यान करो.
विपत्ति का,
आह्वान करो.

मलय पवन,
दूषित करो.
अधम नाम,
भूषित करो.

यदि तुमसे,
ये न होगा.
मैत्री गीत,
रव न होगा.

वरना तनिक,
कलम उठाओ.
रक्त-विष ,
उसे डुबाओ.

लिखो या,
अपशब्द मुझको.
तनिक या,
छींटे गिराओ.

मुझे भी,
मालूम रहे.
आसमान में,
दाग था.

क्षणिकाएँ...



परी..माँ...

कहती थी बेशकीमती,
होते हैं पँख,
आसमानी परियों के.
और एक साड़ी में,
निकाल देती थी,
वो पूरा साल.





धन्यवाद...

कुएँ से पानी खींचते,
करते धान की निराई,
खटते दिन-रात बासाख्ता,
जो सदैव मुस्कुराया.
धन्यवाद परमेश्वर,
उस परम का.
जो ऐसा दिव्य,
पिता मैंने पाया.




कैसा नाता?...

ये तो तुम,
भूगोल की किताब,
में तहाए हुए,
मोरपँख से पूछो.
जो तुमने,
नौ साल पहले,
चुराया था,
मेरी किताब से.






उसका दर्द....

वो शिकायत करता था,
चिट्ठियाँ नहीं लिखने पर.
और पढ़ लेता था दर्द,
मेरी काँपती लिखावट में.
उसके भी आजकल सिर्फ,
एसएमएस आया करते हैं.





बताशे...

मेरी नाराजगी का ख्याल,
निकलता तो धमक के है.
तुम हंस देते हो.
और झेंपा हुआ वो,
पूछ बैठता है,
" पानी में डुबो,
बताशे खाए हैं कभी?"







चोर आदतें...

एडियों के बल,
उचकने की आदत.
पिता जी की जेबों में,
जेबखर्च रखने की आदत.
माँ की तरह ही,
बासी चखने की आदत.
कुछ चोर आदतें,
ना बदलें तो अच्छा.







विष..

सुना है अब,
नहीं रह गए,
विषैले तुम्हारे दाँत.
आओ सर्पमुख.
कुछ रोज रहो,
ईर्ष्या करना सीख लो.






आँखें...

चुप से लबरेज,
तुम्हारी चुपचाप आँखें,
बहुत कचोटती हैं मुझे.
मैं अपनी स्याह आँखों से,
शब्द गिराता जाता हूँ.







यकीं से...

बूंदों के तार पर,
स्नेह शब्द भिजवाऊंगा.
तुम खिड़की से,
एक सिरा इन्द्रधनुष,
थामे रखना.






अपने लिए...

मेरे लिए बात-बेबात,
रो देना उसकी आदत है.
माँ को पापा ने यूँ,
कभी और रोते नहीं देखा.

एहसास (क्षणिकाएँ..)


शब्द जो बच गए...

मैं लिखता हूँ,
और चबा लेता हूँ,
कागज़-शब्द.
माँ कहती है,
करेला खाया कर,
चबा कर.
माँ ज्यादा,
चीनी खाने से,
मना भी करती है.




मैं-हरसिंगार....

जगा, खिला,
हँसा, लजाया.
उठा, महका,
फूला, बौराया.
झडा-गिरा,
माँ के आँचल में.
पूजा के फूल,
माँ नीचे नहीं,
गिरने देती.



शिकायती लिबास...

कभी मैं सुखाता हूँ,
कभी तुम.
ना ख़त्म होते हैं,
हमारी शिकायतों के,
गीले लिबास.
न उतर पाती है,
अपने दरम्यान की,
कसैली अलगनी.



चाँद............ (कॉपीराईट है कई लोगों का, पर उधारी विषय... :)..)

कटोरी, थाली,
रोटी चाँद.
खोई लूडो की,
गोटी चाँद.
किसी की चादर,
चूने का धब्बा.
किसी की साँसें,
बोटी चाँद.




रात के इन्द्रधनुष...

मेरी तुम्हारी-हमारी,
हर बात का सार,
निकल ही जाता.
तो इन्द्रधनुष,
रात ना खिलते,
मूरख आसमान?




मेरी पढ़ाई में...

सूखने लगा है,
अमराई का ताल.
घुटने तक पानी,
की जगह अब,
एडियों तक कीचड है.
पिछले साल बैल,
ट्यूबवेल अबकी,
बेच दिया है अब्बा ने.




बाबूजी...

कठिन युग झेले,
पीड़ा के तरु से,
वर मांगे कुछ,
कष्ट के किसलय.
और उसने दिया,
सदा की तरह.
डालियाँ हिला,
पराग परिमल.