लिखता काठ पर...

बहुत दिन हुए ना,
लिखे हुए कुछ भी?
तुम पर अथवा,
तुम्हारे बारे में.

किन्तु प्रिय,
तुमसे वैराग ले.
या दोष दे तुम्हे,
कैसे लिखता?

कैसे बुनता शब्द,
कर तुम्हे शापित?
कैसे कर पाता,
अस्थियाँ गीत की,
मज्जा विहीन?
तुम्हारा लावण्य,
भी तो नहीं,
बखान सकता था.

प्रिय!
प्रीतम कैसे लिखता?
क्यूँ लिखता तुम्हे?
जब स्नेह के,
अंतिम तिनके,
को भी तोड़ा,
तुमने निर्मम हो.

पर फिर क्या,
लिखता तुम्हे?
कोई और नाम,
जानता भी तो नहीं.

अप्रिय हो तुम.
मेरा ह्रदय यह,
मानता भी तो नहीं.

सच में!
बहुत दिन हुए ना,
लिखे हुए कुछ भी?

बहुत चाहा करूँ,
निंदा तुम्हारी.
किन्तु दवात तो,
अनुराग ले बैठा है.

काश कि तुम,
ना होते.
या ना होता,
ये कागज़ ही.

मैं लिखता काठ पर,
आँसू से भिगाता.
बोरसी में जलाता.
चटकते तुम्हारे नाम,
बनते स्फुलिंग.
मैं छूता जल जाता.

जले हाथों से लिखता,
तो शायद लिख पाता.

3 टिप्पणियाँ:

मुदिता said...

Avinash
mere blog par tumhare aane ka fayda mujhe hi hua jo tumhare blog ka rasta mil gaya :).. mail to tumne bhi nahin kari bahut din se..par tumhari rachnayein padhna hamesha sukhad hota hai..

bahut achchha laga is rachna ko padh kar as usual..

God bless u and ur pen..

shubhkamnayein
Mudita

वर्तिका said...

bahut bahut bahut hi acchi.... rooh mein ristaa gaya har shabd... aur shabdon kaa marm.................

शरद कोकास said...

बस एक वाह !