एक पाणिनी...



क्यूँ?
क्यूँ कभी कभी यूँ,
लगा देते हो चुप.
मूक से भाव वह,
समर्पण के तो नहीं,
समर्थन के भी नहीं लगते.

फिर?
फिर क्या है ये?
पलट के जवाब तक,
नहीं आता तुमसे.
जवाब ही क्या अब,
नहीं लौटते टकरा कर,
सवाल तक मेरे.

खीज होती है बहुत,
उचित भी तो है.
शायद मर्यादित ना हो.
मेरे धीरज की भी,
कोई सीमा है लेकिन.

और उस कुढ़न में,
प्रतिदिन लगता हूँ टोकने.
मढ़ता हूँ तुच्छ आरोप,
और होने लगता हूँ गलत.

तो वाह!
गरज उठते हो तुम,
हर तर्क सटीक बैठता है.
शब्द शर बन जाते हैं,
और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ .

वाकई,
शास्त्रार्थ पाणिनी से,
पाणिनी नहीं कर सकता...

1 टिप्पणियाँ:

रश्मि प्रभा... said...

adwitiye vichaaron ka adbhut prawaah hota hai tumhari kalam mein