स्नेह का नीड़....


बड़े जतन से,
सहेज रखी हैं.
तुम्हारी हर एक,
स्नेहिल मुस्कान.
वैसे भी और कुछ,
याद नहीं आता.
है तुम्हारा परिचय,
ये मनमोहक मुस्कान.
ठहरे और भागते,
शांत या उन्मत.
जीवन के प्रत्येक,
क्षण को जैसे.
दिया तुमने सदैव,
बराबर ही स्थान.
कर्म-धर्म, वचन,
उतार और चढाव.
विफलता-सफलता के,
अगणित पड़ाव.
मानो विफल हों,
बदल पाने में.
चिर औचित्य जो,
गतिशील है तुम्हारा.
वस्तुतः होता है,
जो कष्ट का शिखर.
वहाँ भी ढूंढा तुमने,
शांति का सोपान.
रहस्य रहने का,
हर क्षय से अक्षय.
अबूझ है आज भी,
ये विस्मयादिबोधक अव्यय.
रहे यह मुस्कान,
सदैव मुझे सुलभ.
रखना सजाए भाई,
स्नेह का ये नीड़.

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