सुर....


जब सभी वाध्य,
हों यथास्थान.
सुगन्धित इत्र हो,
वायु में घुली.
सुख चारण बन,
पंखा झलें.
रसित ग्रीवा के,
हों मधुर गान.
उन्मादों का,
नाद हो जो.
रति काम का,
थाप हो जो.
मीठी सी जब,
शहनाई हो.
बहती हलकी,
पुरवाई हो.
कुछ धीरे से,
अम्बर छलके.
और पुष्प हिलें,
हलके हलके.
ऐसे सुर प्रभु,
मुझे मत दो.

ये रुधिरों में,
जम जाएँगे.
मेरी ही त्वचा,
को खाएँगे.
जो देना हो,
तो आतप दो.
पछुआ लू की,
सन्नाहट दो.
टनकारें नाम,
करो मेरे.
घनघोर घटा,
गडगडाहट दो.

अरुणाई का,
शंखनाद दो.
संध्या की मुझे,
दुन्दुभी भी दो.
बैलों के गले,
की टन-टन दो.
कभी रंहट की,
खड़-खड़ दो.
घप्प घप्प ,
कुदालों की.
मुझे स्वेद की,
टप-टप दो.

ऐसा सुर मत,
देना मुझको.
जो पौरुष से,
बिलकुल रीता हो.
सुर ऐसा दो,
बन रक्त बहे.
हो महाबली,
पर मीठा हो.

0 टिप्पणियाँ: