मैं पाषाण बन गया.......

तुम तो जीवनदात्री धरा थी,
मैंने चाहा तुमको पाना।
लेकिन जो है विहग प्रवासी,
उस पर कैसे रोक लगाना।
हुई आकांक्षा कटु सी मन में,
तुमको है नीचा दिखलाना।
बिन स्पंदन जो गीत लिखा तो,
देखो मैं पाषाण बन गया।

कितने कोपल भग्न हुए पर,
तुमने हर क्षण नीड़ सजाया।
तिनके मेरे खिड़की दरवाजे,
आँसू का तुमने जोड़ लगाया।
मैं इतराया, हद पगलाया,
तुमको तुमसे किया पराया।
अब तिनके छूता हूँ तो देखो,
हर तिनका ही बाण बन गया।

तुम्ही छवि थी, तुम थी छाया,
चन्दन तरु की कोमल काया।
कोयल जैसी पराग वाणी,
हंसी महा-माया की माया।
क्यूँ न प्रणय समझ सका मन,
प्रेम के बदले क्षोभ थमाया।
आग लगाई जो तुमको तो,
ह्रदय मेरा श्मशान बन गया।

युग गीतों के कितने चर्चे,
एक कहानी सौ सौ पर्चे।
ह्रदय से हैं मैंने चपटाये,
कभी ना तुमको गले लगाया।
काश के पढता नयन तुम्हारे,
जिनको कल्पों बहुत रुलाया।
आज मेरी आँखों का पानी,
आँखों से अनजान बन गया।

बिन स्पंदन जो गीत लिखा तो,
देखो मैं पाषाण बन गया।

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