क्षणिकाएं फ़िर से.....

माँ सब जानती है...

सोचा इस बार,
अचानक माँ को,
सरप्राईज़ विजिट दूँ।
घर पंहुचा तो,
माँ मंदिर गयी थी।
खुशबू आ रही थी,
कटहल के कोफ्तों की।
जो पूरे घर में बस,
मुझे ही पसंद हैं।



अंतर....

दाल के पकने पर,
ढक्कन खनकता है।
तुम जल जाते हो जो,
नीचे वाला तरक्की करे।
तभी अंतर है,
नाम रूप एक ही,
धातु रूप अनेक है।


सच कहो....

मैं तैयार हूँ,
बनने को विषधर भी।
अगर तुम हो,
जाओ विषहीन।
मुझे आस्तीन का,
सांप कहने से।


समझो....

व्यर्थ है प्रिय,
लावण्य तुम्हारा।
ये कीर्ति भी,
मिट जानी है।
अगर नहीं है,
धीरज तुममे।
और ना आंखों,
में पानी है.



गलती किसकी?

कितनी आसानी से,
कह दिया न।
"चिकने घडे पर,
कितना ही पानी डालो..."
बनाया तो तुम्हारे ही,
किसी भाई ने होगा।
और तुम्हारी ही,
कोई बहन लाई,
होगी पका उसे,
फिर मांज के भी।



झूठ....

कोई नहीं मानेगा,
सनकी-फेंकू भी कहे।
पर सबसे सुन्दर,
क्या पूछने पर।
हर बार लेता हूँ,
नई अभिनेत्री का नाम।
कैसे कहूँ?
"पापा के पैरों की,
हसीन बिवाइयां"



माँ की सब्जी...

अम्मा ये ठीक नहीं,
तुम इतनी अच्छी,
सब्जी ना बनाओ।
दो दिन बाद ये,
कहाँ मिलेगी मुझे?
" इसीलिए बनाई रे,
दो दिन बाद तो,
मुझसे भी नहीं,
बन पाएगी ना?"



चुन लो अपना.....

अकाल में भाव,
दाल के सौ और,
चावल के चालीस।
पर सरकार ने भी,
कीटनाशक और,
इम्पोर्टेड चीज़ के,
दाम घटाए हैं।
देख लो हरिया,
चुन लो अपना....



मित्र.....

वजन तो है कुछ,
बात में तुम्हारी।
और फिर मेरी भी।
तभी तो बघार,
रहे हैं विशेषताएं।
तराजू के अलग,
अलग पलडों से।
लो मैंने वजन,
त्याग दिया।
तुम भी उड़ो ना,
बनके रुई के फाहे।
आओ हवा में,
दोस्ती कर लें.....

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