गूंगी...

कभी कभी यूँ ही,
छू लिया करो न।
मेरी अँगुलियों ,
के पोरों को।

मत फेरो भले,
सर पर हाथ।
कुर्सी के कोनों,
से लरजती जुल्फें,
ही सहेज दो।

महीने-दो-महीने में,
एक बार ही सही,
झलक दिखलाया करो।
वही काफी है,
मेरी मुस्कान को।

माना कशिश नहीं,
मेरी फीकी मुस्कान में।
लेकिन कभी कंचे को ही,
मोती मान लो।
सच में कोई आस,
नहीं है चतर सुजान,
बनने की तुम्हारी।

कभी मिस कॉल ही,
कर दिया करो।
अरे उठा भी लिया,
तो बोल थोड़े न पडूंगी।

" ना करो फोन,
मैसेज भी नहीं।
मुह न दिखाना,
गिफ्ट कहाँ है,
बीते जन्मदिन का?"

रहूंगी मौन ही,
दिल शायद गूं गूं करे,
"आओ जी,
इस सावन तो आओ जी।"

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