सुने ज़रा...

मेरी तारीफ़,
ना किया करें।
ना कहा करें,
के मैं काबिल हूँ।

मेरे मंतव्य,
को समझें।
फिर भले कहें,
के मैं जाहिल हूँ।

मुझे पंक ही,
रहने दें।
कोई पंकज,
नहीं मानें।

मगर मेरी,
बात को समझें।
के शायद मैं,
मुनासिब हूँ।

भाई से बैर,
सा क्यूँ है?
बाप अब गैर,
सा क्यूँ है?

बहन से क्या,
है अब लेना?
दूध अब जहर,
सा क्यूँ है?

क्यूँ है सब,
ख़ाक अब रिश्ते?
क्यूँ नहीं,
पाक अब रिश्ते?

खुद जवाब ढूंढें,
खुद अमल में लायें।
मेरी दिल की,
हर दुआ पाएं।

फिर मुझे,
काट भी देंगे।
दफन कर,
पाट भी देंगे।

तो मेरी,
रूह बोलेगी।
सुकून के साथ,
गाफिल हूँ.

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