अदा...

जीत ही जाना,
जरुरी तो नहीं।
जरुरी है जीत का,
प्रयास किया जाए।

बिफर तो कोई भी,
सकता है।
जरुरी है जरा,
अपमान पिया जाए।

खुशियों का जश्न,
सब मना लेते हैं।
कभी तसब्वुर में,
किसी ग़मगीन को फूल,
दिया जाए।

अंजुमन के कहकहे,
अच्छे तो लगते हैं।
जरा तन्हाई का,
शोर सुना जाए।

रोज़ उखाड़ते हो,
पंखुडिया गुलाब की।
कभी क्यूँ ना,
कांटें चुने जाएँ।

फिल्म संगीत,
यारों के लतीफे,
छोड़ कर क्यूँ न,
कभी किसी निरीह,
अबोध को सुना जाए।

यूँ तो शहरों में,
मकानों की कमी नहीं।
पर कभी जरा,
अंधियारे बियावान ,
में रहा जाए।

खुशनुमा दोपहरी,
यूँ तो बड़ी हसीन है।
कभी क्यूँ ना,
मौत की रातों,
को जिया जाए.

1 टिप्पणियाँ:

Vinay Jain "Adinath" said...

bahut sundar Avinash bhai...